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Jagannath Rath Yatra Special: छत्तीसगढ़ के देवभोग में स्थित ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर, महाप्रभू को भेंट किया जाता है लगान

गरियाबंद। देवभोग के एतिहासिक जगन्नाथ मंदिर की स्थापना से लेकर उसके संचालन के भी कई ऐसे रोचक किस्से अतीत के पन्नों में कैद हैं, जिन्हें लोग देखते जरूर हैं लेकिन इसके इतिहास से अनजान हैं. हम आपको बताने जा रहे झराबहाल गांव में मौजूद राधा कृष्ण के भीतर मौजूद शिला के बारे में. यह कोई साधारण शिला नहीं बल्की शपथ शिला है. जिसे गांव के पूर्वजों ने एक राय होकर जमीन में गाड़ दिया था. जिस तरह मंदिर निर्माण जन सहयोग से हुआ उसी तरह भगवान के प्रति जन आस्था बरकरार रखने मंदिर संचालन के लिए प्रति साल फसल कटाई के बाद अनाज अथवा नगद लगान के रूप में भगवान को समर्पण करना पड़ता है. 123 साल पहले ही क्षेत्र के लोगों ने भगवान को लगान के स्वरूप भेठ देना तय किया था. जिस तरह सरकार लगान के रकम से अपने कर्मचारी के वेतन भत्ते और मेंटेनेंस का कार्य कराती है ठीक इसी तरह प्राप्त लगान से मंदिर का संचालन होता है.

मूर्ति की शक्ति परीक्षण के बाद मंदिर बनाने दिया सहमति

मंदिर ट्रस्टी के अध्यक्ष देवेंद्र बेहेरा बताते हैं कि 18वीं शताब्दी की बात है, जब मिछ मूंड नामक पंडित पूरी से लाए जगन्नाथ की मूर्ति को झराबहाल ग्राम में बरगद पेड़ के नीचे रख पूजन करते थे. धीरे-धीरे लोगों की आस्था इस मूर्ति पर बढ़ी.लोगों ने मंदिर निर्माण के लिए जमीदार से स्थान की मांग किया. लेकिन तत्कालीन जमीदारों ने मूर्ति के शक्ति का परीक्षण कराना तय किया. देवभोग से लगे आसपास के 54 गांव के प्रतिनिधि बुलाए गए और मूर्ति की सत्यता का परीक्षण किया. पंडा ने जिस परात में मूर्ति को चंदन-हल्दी पानी से स्नान कराया उस पानी में लोहे के कछुए को पंडा ने तैरा दिया. इस चमत्कार के बाद मंदिर बनाने का ऐलान हुआ.

प्रभु क्यों वसूल कराते हैं लगान

मंदिर ट्रस्टी के परिवार के वरिष्ठ सदस्य जोगेंद्र बेहेरा बताते हैं कि परीक्षण के बाद यह भी तय हुआ की मंदिर निर्माण अकेले जमीदार नहीं बनाएंगे, इसका निर्माण जनभागीदारी से होगा. 1854 में मंदिर बनाना शुरू हुआ, 84 गांव के सभी ग्रामीण अपने क्षमता के अनुरूप सहयोग किया. निर्माण सामग्री से लेकर आर्थिक सहयोग किया. निर्माण 1901 में पूरी हुई. मंदिर बनने के बाद अब इसके संचालन को भी भक्तों के आस्था के साथ जोड़ा गया. फसल कटने के बाद फसल का अंश मंदिर संचालन,भगवान के भोग के लिए देना तय हुआ और इसके लिए संकल्प भी लिया गया. इस संकल्प के साक्षी के लिए मूर्ति स्थापित पुराने स्थान पर एक पत्थर गाड़ उसे शपथ शिला का नाम दिया. कुछ साल पहले अब इस शिला पर भी मंदिर बनाया गया.