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भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए इस शिवरात्रि करें ‘शिव तांडव स्त्रोत’ का पाठ, महादेव के महान भक्त रावण ने लिखा था इसे, इसके पाठ से मिलती है जीवन की बाधाओं से मुक्ति

Mahashivratri: हिंदू सनातन धर्म में भगवान शिव को मोक्ष का, संहार का देवता माना जाता है। महादेव की महिमा जितनी प्रबल है, उनका क्रोध भी उतना ही घातक माना जाता है। समुद्र मंथन से निकले विष को गले में रखकर निलकंठ हो गये महादेव का इस संसार में एक ऐसा भी भक्त है, जिसके कर्मों ने उसे ऐसा अपयश दिलाया कि लोग आज भी उसका नाम बेहद हेय दृष्टि से लेते हैं।

जी हां, इस शिवरात्रि हम बात कर रहे भोलेनाथ के अनन्य भक्त राक्षसराज रावण की।

दशानन रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए ‘शिव तांडव’ जैसे महान स्त्रोत की रचना की थी। रावण रचित इस स्त्रोत में तांडव शब्द ‘तंदुल’ से बना है, जिसका अर्थ ‘उछलना’ होता है। वहीं तांडव शिवजी द्वारा किया गया वह प्रसिद्द नृत्य कला है, जिसे करने में बेहद उर्जा और शक्ति की आवश्यकता होती है। शिव तांडव की रचना को लेकर एक बेहद प्रसिद्ध कथा है, जिसे हम आपके यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

शिव तांडव स्तोत्र रावण ने क्यों रचा

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रतिच रामायण के उत्तर कांड में वर्णन मिलता है कि दस सिरों वाले और बीस भुजाओं वाले राक्षसों के राजा रावण ने कैलाश पर्वत के पास बने अपने सौतेले भाई कुबेर के शहर ‘अलका’ को लूट लिया। रावण कुबेर को हराने के बाद उससे जबरन लूटे गये पुष्पक विमान से जब वापस लंका लौट रहा था, तब उसकी दृष्टि एक बेहद खूबसूरत कैलाश पर्वत पर पड़ी। उस स्थान पर रावण का रथ एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था।

रावण ने उस स्थान पर भगवान शिव के नंदी बैल को विचरण करते हुए देखा और अपने रथ के उस स्थान से ठहरने का का कारण पूछा। नंदी ने रावण को बताया कि भगवान शिव और माता पार्वती स्वयं कैलाश पर विराजमान हैं, इसलिए किसी को भी वहां से जाने की अनुमति नहीं है। रावण ने यह सुनकर भगवान शिव और नंदी का मजाक उड़ाया। स्वामी का परिहास सुनकर क्रोधित हुए नंदी ने रावण को श्राप दिया कि उसके इस घमंड का सर्वनाश मानव नहीं बल्कि वानर करेंगे।

रावण को नंदी पर क्रोध बहुत आया लेकिन वो उनके श्राप को लेकर आगे बढ़ा परंतु वो एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सका। उसके बाद रावण ने तय किया कि वो कैलाश को उखाड़ देगा। उसी मंशा से राण ने अपनी सारी बीस भुजाओं से कैलाश को नींव से उखाड़ने लगा। रावण के असीम बल से कैलाश में कंपन होने लगा। इस काऱण माता पार्वती भयभीत हो गई। माता को भयभीत देथ भगवान शिव क्रुद्ध हुए और उन्हें समझ में आ गया कि इस खतरे के पीछे रावण की कुटिल मंशा है।

भोलेनाथ ने तय किया कि वो रावण को इसका दंड जरूर देंगे। इसलिए उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को दबा दिया, जिसके कारण रावण के बीसों हाथ उसके नीचे फंस गये। रावण दर्द से कराहने लगा।

उसके पश्चात रावण के मंत्रियों ने सलाह दी की महादेव के प्रकोप बचने के लिए वो उनकी स्तुति करे। उसके बाद रावण ने वहीं कैलाश पर्वत पर एक हजार वर्षों तक शिव स्तुति की। रावण की इस भक्ति को देखकर भगवान शिव का हृदय पिघल गया और उन्होंने न केवल रावण को क्षमा किया, बल्कि उसे वरदान में ‘चंद्रहास’ नामक एक अजेय शस्त्र भी दिया।

कहा जाता है कि रावण द्वारा भगवान भेलनाथ की स्तुति में गाए उन छंदों को एकत्र करके ‘शिव तांडव स्तोत्र’ की रचना हुई है।

शिव तांडव स्तोत्र के पाठ से मिलने वाले लाभ

शिव तांडव स्त्रोत के पाठ से मन मस्तिष्क शांत होता है

शिव तांडव स्तोत्र के पाठ से जीवन में आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिलती है

शिव तांडव स्त्रोत के जाप रोगों से जल्द छुटकारा दिलाता है

शिव तांडव स्त्रोत के जाप से मनुष्य धनवान और गुणवान बनता है

शिव तांडव स्त्रोत कुण्डली में कालसर्प योग के प्रभाव को कम करता है

शिव तांडव स्तोत्र

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी_
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्जलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्‍भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर_
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥5॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा_
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥6॥

करालभालपट्टिकाधगद्‍धगद्‍धगज्ज्वलद्_
धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥

नवीनमेघमण्डली निरुद्‍धदुर्धरस्फुरत्_
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥8॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा_
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥9॥

अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी_
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्‍भुजङ्गमश्वसद्_
विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल_
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥11॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्_
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥12॥

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन्कदा सुखी भवाम्यहम् ॥13॥

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥14॥

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः
शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥15॥